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त्रिरा दि॒वः स॑वि॒ता सो॑षवीति॒ राजा॑ना मि॒त्रावरु॑णा सुपा॒णी। आप॑श्चिदस्य॒ रोद॑सी चिदु॒र्वी रत्नं॑ भिक्षन्त सवि॒तुः स॒वाय॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

trir ā divaḥ savitā soṣavīti rājānā mitrāvaruṇā supāṇī | āpaś cid asya rodasī cid urvī ratnam bhikṣanta savituḥ savāya ||

पद पाठ

त्रिः। आ। दि॒वः। स॒वि॒ता। सो॒ष॒वी॒ति॒। राजा॑ना। मि॒त्रावरु॑णा। सु॒पा॒णी इति॑ सु॒ऽपा॒णी। आपः॑। चि॒त्। अ॒स्य॒। रोद॑सी॒ इति॑। चि॒त्। उ॒र्वी इति॑। रत्न॑म्। भि॒क्ष॒न्त॒। स॒वि॒तुः। स॒वाय॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:56» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:7 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजप्रस्ताव से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (सविता) प्रेरणा करनेवाला अन्तर्य्यामी (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के सदृश सबके मित्र (सुपाणी) और सुन्दर जिनके हाथ ऐसे (राजाना) विद्या और विनय से प्रकाशमान नरों के समान (दिवः) प्रकाश से (त्रिः, आ, सोषवीति) तीन बार सब ओर से निरन्तर प्रेरणा देता है (अस्य) इस (सवितुः) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्ययुक्त जगदीश्वर के समीप से (सवाय) ऐश्वर्य्य के लिये (आपः) प्राणों के (चित्) सदृश (उर्वी) बहुत (रोदसी) प्रकाशित और अप्रकाशित जगत् और (रत्नम्) सुन्दर धन की (चित्) भी सब लोग (भिक्षन्त) याचना करते हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजा लोग परमेश्वर के सदृश गुण-कर्म और स्वभावयुक्त हुए प्रजाओं में वर्त्तमान हैं, वे ही चक्रवर्त्ति राज्य और असङ्ख्य धन को प्राप्त होते हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजप्रस्तावेन विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यस्सविता मित्रावरुणा सुपाणी राजानेव दिवस्त्रिरा सोषवीत्यस्य सवितुः सकाशात्सवायाऽऽपश्चिदुर्वी रोदसी रत्नं चित्सर्वे भिक्षन्त ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्रिः) (आ) अभिविधौ (दिवः) प्रकाशात् (सविता) प्रेरकोऽन्तर्य्यामी (सोषवीति) भृशं सुवति (राजाना) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमानः (मित्रावरुणा) प्राणोदानवत्सर्वेषां सुहृदौ (सुपाणी) शोभनौ पाणी ययोस्तौ (आपः) प्राणा इव (चित्) इव (अस्य) जगदीश्वरस्य (रोदसी) प्रकाशाप्रकाशे जगती (चित्) अपि (उर्वी) बहुले (रत्नम्) रमणीयं धनम् (भिक्षन्त) याचन्ते (सवितुः) सकलैश्वर्य्यसम्पन्नस्य सकाशात् (सवाय) ऐश्वर्य्याय ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये राजानः परमेश्वरवद्गुणकर्मस्वभावास्सन्तः प्रजासु वर्त्तन्ते त एव साम्राज्यमसंख्यं धनञ्च लभन्ते ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजे परमेश्वराप्रमाणे गुण, कर्म, स्वभाव धारण करून प्रजेशी वागतात त्यांना चक्रवर्ती राज्य व असंख्य धन प्राप्त होते. ॥ ७ ॥